1/30/2012

पतंग


गर्मी की दोपहर के ढाई बजे थे। जैसे ही हमारे स्कूल की घंटी बजी, मन आह्लादित हो उठा। सारे बच्चे क्लास से बाहर भागने के लिए व्याकुल हो गए। शिक्षक की फटकार लगाने पर सभी ने लाइन बनायीं और व्यग्रता से बाहर आने लगे। मैंने अपने जुड़वाँ भाई का हाथ पकड़ा और उसके साथ शीघ्र स्कूल के गेट तक पहुचने की पुरजोर कोशिश की। मुझे पतंग उड़ाने की इतनी उत्सुकता थी बस पूछिए मत। मेरा मन मयूर ख़ुशी से नाच रहा था। हालाकि मेरे मस्त-मौले भाई को मेरी जल्दबाज़ी रास न आई। उसने हाथ छुटाने का सफल प्रयाश किया। उसे पिंकी को बाय-बाय कहना था। मैंने उसे काला-खट्टा और लाल चूरन का लालच देकर अपने साथ कर लिया। हम जल्दी गेट पर पहुचे गए। चूरन वाले बूढ़े बाबा की साइकिल के सामने जादा भीड़ नहीं थी। मेरा प्रयास रहा। मैं जल्दी घर पहुच सकूँगा। मैंने
अपने और भाई के लिए दो-दो लाल चूरन और काला-खट्टा लिया। हमे बोहोत ख़ुशी हुई। गेट से कुछ दूर पर अपनी साइकिल के साथ हमे मैनेजर चाचा दिखाई दिए। मैनेजर चाचा हमारे घर के सबसे खास आदमी थे। माँ कहती थी की मैनेजर चाचा हमारे घर में पिछले पंद्रह सालो से कम कर रहे थे। चाचा साइकिल मस्त चलाते थे। उन्होंने हमे जल्दी ही घर पंहुचा दिया। पूरे रास्ते भर मैं अक्सर ऊपर निहारता। धूप तो बोहोत थी पर मैंने अपने सानदार काले चश्मे में देखा की आकाश में सिर्फ थोड़ी पतंगे ही थी।

हम जैसे ही घर पहुचे, माँ ने हमे पुचकारा और कपड़े बदल कर खाना खाने के लिए बोला। मैने अपना प्लान पहले से ही बना रखा था। चारपाई पर अपना स्कूल बैग सादगी से रखते हुए मैं होमेवोर्क करने बैठ गया। घर में सभी ये देख कर हैरान हो गए। बिना कुछ खाय-पीये पढने की इतनी ललक! सिर्फ माँ ही थी जिसे मेरी सारी चालो की भनक थी। वो मुझे देख कर मुस्करायी और सिर पर हाथ फेरते हुए बोली।

"मुन्ना खाना खा लो! पतंग उड़ाके होमवर्क कर लेना! ऐसी भी क्या जल्दी।"

मैने माँ से साफ़-साफ़ बोल दिया की पतंग उड़ाते समय मुझे कोई बाधा नहीं चाहिये। बच्चे ने होमेवोर्क कर लिया तो समझो उसको खेलने का फ्री पास मिला गया। पूरी शाम खेलने का ख्याल ही मन को रोमांच से भर देता। अपना कम निपटा के और फिर खाना के, मैने सीधे पूजा घर का रूख किया। मैं अपनी पतंगे और चरखी पूजा घर में रखा करता था। मुझे हमेशा ऐसा लगता था की भगवन मेरी पतंगों को शक्ति देंगे और फिर मैं अपने कालोनी का सबसे अच्छा पतंगबाज़ कहलाऊंगा।

शाम के चार बज चुके थे और धूप पूरी तरह तो नहीं पर कुछ हलकी हो गयी थी। मैने अपनी लाल रंग की 'पुच्चंडी पतंग' को गर्व से पूजा घर
से बाहर निकाला। चरखी मैने कुछ दिन पहले ही अपने बगल के मोनू से १० रपये में खरीदी थी। माँ मुझे 'मंझा' भी खरीदने के पैसे दे रही थी पर मैने अपने भाई के लिए उस पैसे से क्रिकेट गेंद खरीद ली थी। उसे पतंग उड़ाना बिलकुल भी पसंद नहीं था। बस वो मुझे चरखी पकड़ने में मदद कर देता है। मैं भी उसे बोव्लींग करके क्रिकेट खिलाता था।

अपने घर की तीसरी मंजिल पर चढ़ कर मैने आकाश
में नज़र दौड़ाई तो मेरे छत के ऊपर ही दो बड़ी पतंगे मस्ती में उड़ती नज़र आई। मैं समझ गया कालोनी के मंझे हुए पतंगबाज मैदान में आ चुके है। दुश्मन पास थे और मुझे सतर्कता से कम लेना था। मैने अपने 'मंझे' और धागों के कसाव को चेक करते हुए, पतंग को अच्छी सी 'कन्नी' लगायी। पतंग में 'कन्नी' लगाना मैने अपने छोटे चाचा से सीखा था।
हौले-हौले मैने अपने पतंग को आकाश चूमने के लिए ढील दे दी। मेरी खुशी और उत्सुकता दोनों ही चरम पर थे। मैं ८ साल का सबसे उभरता हुआ पतंगबाज़ था। मेरे पास चरखी भी थी जो कईओ के पास न थी। कोई टूटे डंडे में धागे लपेटा तो
कोई अपने हाथो सी कम चला लेता। जैसे मेरी पतंग हवा में लहराती हुई ऊपर गयी, मेरे अन्दर एक गज़ब की अनुभूति हुई। ऐसा हर बार होता। उस कागज़ के ख़ूबसूरत टुकड़े को हवा में ऊपर जाते देखना, उसे ढील देकर खुद से बोहोत दूर जाने देना, तेज हवा में उसे संभालना, उस स्तीथि में लाना जन्हा वो एक चिड़िया की भांति स्थिर होकर बादलो में लहरा सके, ये मेरी लिए अनोखे एहसाह से कुछ कम न थे। घंटो तक मैं अपनी पतंगों को निहारता।

जब तक मैं न चाहता कोई मेरी पतंगों से पेंच नहीं लड़ा सकता था। मैने अपने बाबा के साथ जाके सबसे बोल दिया था की जब मैं पतंग उडाऊ तो मुझे पेंच देके कोई काटे नहीं। कालोनी में सब मेरे बाबा को जानते थे। कोई हिम्मत करके भी मेरे पतंग को हाथ नहीं लगाता। मुझे पेंच लगाना पसंद नहीं था क्यूंकि पतंग खोने पर बोहोत दुःख होता था। अगर कभी किसी ने जबरदस्ती मेरी पतंग कट दी तो बाबा मुझे
नयी पतंग लाके देते थे।

मेरी पतंग अभी हवा में सबसे ऊपर थी। बाकि सारे पतंगबाज़ चाहे वो बगल का मोनू हो या बीस घर छोडके रमेश, सभी पेंच लगाने में व्यस्त थे। मैं चुप-
चाप अपने पतंग को उचाई छूते देखना चाहता था। जब तक चरकी के धागे ख़तम नहीं हो जाते तब तक उसे ढील देने में जो मजा था उसे शब्दों में व्यक्त करना असंभव् है। शायद मैं खुद को भी पतंग मानता था। जब वो उड़ता तो मेरा भी एक हिस्सा उसके साथ चला जाता हवा की शैर करने। पतंगों में मुझे एक खोज दिखती। जीवन की खोज कह ले या एक अंतहीन ख्याल, अनंत आकाश का। दूर उस दुनिया की एक झलक पाने का इन्तीज़र। कितना कुछ मेरी पतंगे और मैं एक दूसरे से कह जाते ये शायद शब्दों में बया करना मुस्किल है। कई बार तो मैने अपनी पतंगों से भी पूछता की 'क्या बदलो में किसी चिड़िया ने कभी तुमसे तुम्हारा नाम पूछा'? हर बार इसीलिए मैं अपनी पतंगों पर नाम लिख देता है। अपना या कोई और नया नाम! दुनिया के लिए तो वो कागज़ होते पर मेरे लिए तो वो सबसे अच्छे दोस्त थे।

शाम के छह बज चुके थे और मैं एक कोने में बैठा अपने पतंग को निहार रहा था। उसकी डोर
मेरे हाथो में थी। सभी घरो पर महिलाये छतो पर ठंडी हवा खाने आने लगी थी। बाकि सभी अपनी पतंगे अब समेट रहे थे। माँ, चाची, और भाई भी छत पर आये। मैने उन्हें अपनी दूर तक उड़ती पतंग दिखाई। सबने मेरे कला की तारीफ की। अभी मैने अपनी पतंग लपेटना शुरू ही किया था की मुझे आकाश में एक बड़ी पतंग दिखाई थी, जो द्रुत गति से मेरी पतंग की ओर बढ़ रही थी। मैं सकपका गया। ये तो प्लास्टिक की पतंग है जो सिर्फ सोनू के पास है। सोनू हमारे कालोनी का
सबसे अच्छा पतंगबाज़ था और मुझसे उम्र में बोहोत बड़ा था। सोनू शहर से बाहर भी जाता था और वो वहा से बड़ी-बड़ी और एकदम नयी तरह की पतंगे लाता था। घर से कुछ
दूर पर एक पानी की एक टंकी थी। सोनू वही से पतंग उडाता था। माँ और चाची अब तक नीचे जा चुके थे।

मैने अपने भाई को आवाज़ लगाई और उसे धागे सँभालने को कहा। मुझे जल्दी ही अपनी पतंग को वापस लपेटना था वर्ना वो उसे पेंच लगाके काट देता। मैं बुरी तरह घबरा गया। आनन-फानन
में मैं बोहोत जल्दी अपनी चरखी दोनों हाथो के बीच रख कर लपेटने लगा. भाई ने भी तेजी से धागों को खीचना शुरू कर दिया। ढील इतनी जादा थी की धागों को लपेटने में टाइम लगता। इतने में वो प्लास्टीक का शैतान पतंग पास आ चूका था। भागने का कोई फायदा नहीं था। मुझे डर भी लग रहा था। भाई ने मुझे पेंच लड़ाने को बोला। बिना कुछ सोचे मैने पतंग की डोर अपने हाथ में ले ली। भाई ने चरखी पकड़ी।

मैने डोर को लहराते हुए सोच लिया की अपनी पतंग को खोने नहीं दूंगा। धेर सारे तरीको से मैने उन्हें पेंच लगाने से रोके रखा। उनकी पतंग बोहोत उचाई पर थी इसलिए वो बार-बार मुझ पर ऊपर से हमला कर देते। इस बार मैने सोच लिया था। मेरी पतंग भी समझ चूकी थी। मैने उन्हें ऊपर से आके मेरी पतंग पर हमला करने का खुला न्योता दिया। जैसे ही उन्होंने अपनी पतंग ऊपर से लायी,
मैने तेजी से अपनी पतंग उनके मंझे के काफी अंत के सिरे तक ला दी।

पेंच
फंस चूकी थी। फैसला कुछ सेकंड्स या मिनट में हो सकता था। दोनों पतंगे एक दूसरे में उलझ रही थी। किसको जमीन नसीब होगी, किसको आकाश, इसका फैसला बस होने वाला था। हमने किनारे से नीचे देखा तो बच्चो की टोलिया पतंग लूटने के लिए तयार थी। किसी का अंत बोहोत नजदीक था। मैने भाई को ढील देते रहने को बोला। दोनों पतंगे आगे बढती जा रही थी। अचानक से मेरी पतंग उस चंगुल से आज़ाद थी। वो बड़ी प्लास्टिक की पतंग कट चूकी थी। हम जीत गए था। नीचे बच्चे की भीड़ उस पतंग को लूटने के लिए कूच कर चूकी थी। मेरी 'पुच्चंडी पतंग' ने कर दिखाया। मैने जोर से अपने भाई को गले लगा लिया। वो भी खुश हो गया। हमने जल्दी-जल्दी चरखी लपेटा। नीचे से माँ ने आवाज़ लगायी गरमा-गरम चूरे और पकोड़े हमारा इंतज़ार कर रहे थे।

मैं ख़ुशी से पागल था। मैने नीचे जाके सबको बताया। कोई सुन नही रहा था। शायद कोई समझ नहीं पा रहा था की एक पतंग में ऐसी क्या बात है। मेरे लिए तो थी। आज भी जब मैं आकाश की तरफ निहारता हूँ तो मुझे मेरा खोया दोस्त नज़र आता है।

1/28/2012

चाँद में भी दाग है!


अज रात चाँद से मैंने बातें की
कोशिश बहुत की उसे समझाने की
बचपन की दोस्ती का भी दिया दिलासा
पर उसे लगा मैं कर रहा था तमाशा
शिकायत उसकी थी बड़ी वाजिब
कहता मनुष्य कर रहा साजिश
उसके घर को हथियाने का
उसपे जीवन बसाने का
मैंने बोला है नहीं ये कोई साजिश
तुम्हारे वीराने ग्रह पर
मनुष्य जीवन लायेगा
सारा जग तुम्हारे गीत गायेगा
इसमें क्या है तुम्हे परेशानी?
मुझे मालूम क्या करता इन्सान अपने ग्रह के साथ
लोभ में कर देता है सब सर्वनाश
माना मनुष्य बोहोत बुरा होता है
अपने ही कर्मो में कुचला होता है
पर हे चाँद,
तुम हमको जीवन दोगे
इसमें होगी तुमारी शान
खोया सा चाँद
छिपा गया बादलो के बीच जाके
इतने शीतल चाँद को
कवियों की जान को
ये कैसे विचार आए
हमारे जैसा भय , संकुचित मन
कुछ देर रहा मैं अचंभित
एकटक निहारता रहा उसको
देखा की उसमे भी तो दाग है
उसका भी एक हिस्सा बस अंधकार है...